विलुप्त होते जा रहे मिट्टी से बने देशी बर्तन, फ्रिजर की खपत से खत्म होता जा रहा कुम्हारों का पुश्तैनी रोजगार
सिसवा बाजार-महराजगंज। घड़े लेलो, सुराही लेलो, ये देशी फ्रिज लेलो… गर्मियाँ आते ही अब ऐसी आवाजें नहीं सुनाई देती हैं, जबकि गर्मी आने के साथ ठंडे पानी की प्यास लगना स्वाभाविक है। पहले ठंडे पानी के लिये घर-घर में घड़े व सुराही रखने का चलन था। इसके साथ ही रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों के बाहर घड़े व डिजाईनदार सुराही की दूकानें सजी रहती थी।वही शहर के बाहरी इलाकों में कुम्हार मिट्टी के तमाम बर्तन, खिलौने,घड़े व सुराही बनाते नजऱ आते थे। लेकिन मौजूदा दौर पूरी तरह इलेक्ट्रानिक होता जा रहा है, जिसमें यह विधा करीब समाप्त हो चली है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में ठंडे पानी के लिये अभी भी घड़े इस्तेमाल में हैं।
राजा महाराजों व नवाबीकाल में जगह-जगह पियाऊ लगाए जाते थे,जहाँ शुद्ध घड़े के पानी का इंतजाम होता था। जानकार बताते हैं, कि मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी हमारी सभ्यता है। वर्तमान में तमाम पुरानी जगहों पर खुदाई में मिट्टी के बर्तन जैसे सुराही,सिकोरी,दीये, कुल्हड़ व खिलौने आदि मिलते रहते हैं।
डाक्टर बताते हैं, कि मिट्टी के बर्तनों में पानी प्रदूषित नहीं होता एवं हर तरह से घड़े व सुराही का पानी शुद्ध व ठंडा होता है। मिट्टी का क्षारीय गुण पानी की अम्लीयता खत्म करता है, इसी कारण पानी में मीठापन व सौंधापन होता है। मिट्टी के प्राकृतिक गुणों के कारण ही मिट्टी से बने बर्तनों में खाने-पीने की चीजें प्रेजर्व करने में इस्तेमाल होता था। लेकिन वर्तमान में फ्रिज के इस्तेमाल की वजह से घड़ों का प्रयोग बहुत कम हुआ है। लेकिन गाँव-देहात में आज भी घड़ों का इस्तेमाल हो रहा है। साफ-सफाई व प्रदूषण से बचाव के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होना ही चाहिये।
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